Kavita se Lambi Kavita
Material type: TextPublication details: New Delhi Rajkamal Prakashan 2001Description: 116pISBN: 81-267-0189-7Subject(s): Hindi Literature | Hindi poems | Hindi poetry | Poems | PoetryDDC classification: 891.431 Summary: अपने असाधारण मितकथन के लिए विनोद कुमार शुक्ल समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में इतने विख्यात हैं कि कइयों को उनकी इतनी सारी लम्बी कविताएँ देखकर थोड़ा अचरज हो सकता है। अपेक्षाकृत अधिक व्यापक फलक को समेटती हुई ये कविताएँ, फिर भी, उनके संयम और काव्य–कौशल की ही उपज हैं। उनका भूगोल किसी भी तरह से स्फीति नहीं, विस्तार है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि अपने प्रथम प्रस्तोता गजानन माधव मुक्तिबोध के शिल्प का विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग से पुनराविष्कार कर रहे हैं। वहीं खड़े–खड़े मेरी जगह निश्चित हुई थोड़ी हुई ज़्यादा नहीं हुई। एक ऐसे संसार और समय में जहाँ प्राय: सभी अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा की चाह करते और न पाकर दुखी होते रहते हैं, विनोद ‘थोड़े–से’ को ही टटोलने और उसी को अपनी निश्चित जगह मानकर उससे अपने समय को ज़्यादा से ज़्यादा पकड़ते–समझते रहते हैं। उनकी कविता हमारी समझ और संवेदना, जो होता है उसके लिए हमारी ज़िम्मेदारी के अहसास को बढ़ानेवाली कविता है। वह हम पर अपना बोझ नहीं डालती और न ही किसी नैतिक ऊँचाई से हमें आतंकित करने की चेष्टा करती है। उसमें आत्मदया नहीं, बेबाकी है : दोषारोपण नहीं, आत्मालोचन है। वह हमारी सहचारी कविता है और हर समय उसे पढ़ते हुए हम इस विस्मय से भर जाते हैं कि वह हमसे हमारी तकलीफ़, संघर्ष, बेचारगी और ज़िम्मेदारी की कथा कहती है और ऐसे कि कवि और हम दोनों का ही वह जैसे शामिलात खाता है। लम्बी कविताओं का यह संकलन हिन्दी कविता की निश्चय ही शताब्दी के अन्त पर एक नई उपलब्धि है। —अशोक वाजपेयी।Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Books | Ektara Trust | 891.431/SHU(H) (Browse shelf(Opens below)) | Available | 2341 |
अपने असाधारण मितकथन के लिए विनोद कुमार शुक्ल समकालीन साहित्यिक परिदृश्य में इतने विख्यात हैं कि कइयों को उनकी इतनी सारी लम्बी कविताएँ देखकर थोड़ा अचरज हो सकता है। अपेक्षाकृत अधिक व्यापक फलक को समेटती हुई ये कविताएँ, फिर भी, उनके संयम और काव्य–कौशल की ही उपज हैं। उनका भूगोल किसी भी तरह से स्फीति नहीं, विस्तार है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि अपने प्रथम प्रस्तोता गजानन माधव मुक्तिबोध के शिल्प का विनोद कुमार शुक्ल अपने ढंग से पुनराविष्कार कर रहे हैं। वहीं खड़े–खड़े मेरी जगह निश्चित हुई थोड़ी हुई ज़्यादा नहीं हुई। एक ऐसे संसार और समय में जहाँ प्राय: सभी अपने लिए ज़्यादा से ज़्यादा की चाह करते और न पाकर दुखी होते रहते हैं, विनोद ‘थोड़े–से’ को ही टटोलने और उसी को अपनी निश्चित जगह मानकर उससे अपने समय को ज़्यादा से ज़्यादा पकड़ते–समझते रहते हैं। उनकी कविता हमारी समझ और संवेदना, जो होता है उसके लिए हमारी ज़िम्मेदारी के अहसास को बढ़ानेवाली कविता है। वह हम पर अपना बोझ नहीं डालती और न ही किसी नैतिक ऊँचाई से हमें आतंकित करने की चेष्टा करती है। उसमें आत्मदया नहीं, बेबाकी है : दोषारोपण नहीं, आत्मालोचन है। वह हमारी सहचारी कविता है और हर समय उसे पढ़ते हुए हम इस विस्मय से भर जाते हैं कि वह हमसे हमारी तकलीफ़, संघर्ष, बेचारगी और ज़िम्मेदारी की कथा कहती है और ऐसे कि कवि और हम दोनों का ही वह जैसे शामिलात खाता है। लम्बी कविताओं का यह संकलन हिन्दी कविता की निश्चय ही शताब्दी के अन्त पर एक नई उपलब्धि है। —अशोक वाजपेयी।
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