Zameen Pak Rahi Hai

By: Singh, KedarnathMaterial type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal Prakashan 2014Description: 100pISBN: 978-81-267-2717-9Subject(s): Hindi Literature | Hindi poems | Hindi poetry | Poems | PoetryDDC classification: 891.431 Summary: “केदार जी की कविताओं में व्यक्तिगत और सार्वजनीन, सूक्ष्म और स्थूल, शान्त और हिंस्र के बीच आवाजाही, तनाव और द्वन्द्वात्मकता लगातार देखी जा सकती है। ‘सूर्य’ कविता की पहली आठ या शायद नौ पंक्तियाँ कुहरे में धूप जैसा गुनगुना मूड तैयार करती ही हैं कि ‘ख़ूँख़ार चमक, आदमी का ख़ून, गंजा या मुस्तंड आदमी, सिर उठाने की यातना’ इस गीतात्मक मूड को जहाँ एक ओर नष्ट करते से लगते हैं वहाँ उसका कंट्रास्ट भी देते हैं। दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़ रोटी ताप, गरिमा और गन्ध के साथ पक रही है। केदार जी चाहते तो इस मृदु चित्र को कुछ और पंक्तियों में ले जा सकते थे लेकिन शीघ्र ही रोटी एक झपट्टा मारनेवाली चीज़ में बदल जाती है और कवि आदिमानव के युग में पहुँच जाता है—वह कहता अवश्य है कि पकना लौटना नहीं है जड़ों की ओर, किन्तु रोटी का पकना उसे आदिम जड़ों की ओर ही ले जाता है। उसकी गरमाहट उसे नींद में जगा रही है, आदमी के विचारों तक पहुँच रही है और वह समझ रहा है कि रोटी भूखे आदमी की नींद में नहीं गिरेगी, बल्कि उसका शिकार करना होगा और यह समझना कविता लिखते हुए भी कविता लिखने की हिमाकत नहीं बल्कि आग की ओर इशारा करना है। केदार जी की कविताओं का अपनापन असन्दिग्ध है और वे कवि और कविताओं की भारी भीड़ में भी तुरन्त पहचानी जा सकती हैं।”.
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“केदार जी की कविताओं में व्यक्तिगत और सार्वजनीन, सूक्ष्म और स्थूल, शान्त और हिंस्र के बीच आवाजाही, तनाव और द्वन्द्वात्मकता लगातार देखी जा सकती है। ‘सूर्य’ कविता की पहली आठ या शायद नौ पंक्तियाँ कुहरे में धूप जैसा गुनगुना मूड तैयार करती ही हैं कि ‘ख़ूँख़ार चमक, आदमी का ख़ून, गंजा या मुस्तंड आदमी, सिर उठाने की यातना’ इस गीतात्मक मूड को जहाँ एक ओर नष्ट करते से लगते हैं वहाँ उसका कंट्रास्ट भी देते हैं। दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़ रोटी ताप, गरिमा और गन्ध के साथ पक रही है। केदार जी चाहते तो इस मृदु चित्र को कुछ और पंक्तियों में ले जा सकते थे लेकिन शीघ्र ही रोटी एक झपट्टा मारनेवाली चीज़ में बदल जाती है और कवि आदिमानव के युग में पहुँच जाता है—वह कहता अवश्य है कि पकना लौटना नहीं है जड़ों की ओर, किन्तु रोटी का पकना उसे आदिम जड़ों की ओर ही ले जाता है। उसकी गरमाहट उसे नींद में जगा रही है, आदमी के विचारों तक पहुँच रही है और वह समझ रहा है कि रोटी भूखे आदमी की नींद में नहीं गिरेगी, बल्कि उसका शिकार करना होगा और यह समझना कविता लिखते हुए भी कविता लिखने की हिमाकत नहीं बल्कि आग की ओर इशारा करना है। केदार जी की कविताओं का अपनापन असन्दिग्ध है और वे कवि और कविताओं की भारी भीड़ में भी तुरन्त पहचानी जा सकती हैं।”.

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