Achhi Hindi
Material type: TextPublication details: Lok Bharti Prakashan 2008Description: 237pISBN: 978-8180310546Subject(s): Essays | Hindi language | Hindi LiteratureDDC classification: 491.435 Summary: आज-कल देश में हिंदी का जितना अधिक मां है और उसके प्रति जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है । लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियो में, देशी रियासतों में सब जगह हिंदी का प्रचार करना चाहिए, पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिंदी लिखते हैं । मैं ऐसे लोगों को बतलाना चाहता हूँ कि, हमारी भाषा में उच्छ्रिन्खलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए । किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए । देह के अनेक ऐसे प्रान्तों मेन हिंदी का जोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मात्र-भाषा हिंदी नहीं है । अतः हिंदी का स्वरुप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिंदी लेखकों पर ही है । उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध और बे-मुहावरे भाषा का अन्य प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा । इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिंदी के एक प्रसिद्द लेखक और प्रचारक से कहा था - "आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिंदी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं । पर जल्दी ही वह समय आएगा, जब कि वही लोग आपके ही व्यकारण से आपकी भूले दिखायेगे ।" यह मनो भाषा की अशुद्धियो वाले व्यापक तत्व की और गूढ़ संकेत था । जब हमारी समझ में यह तत्व अच्छी तरह आ जायेगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे । और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा । भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने मन के भाव दूसरों पर प्रकट करते है ! वस्तुतः यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है ! अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अंतर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं ! हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव,इच्छाएं, अनुभूतियाँ आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरो पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते जितने बोली जानेवाली भाषा होती है ! यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए 'मूक अभिनय' भी 'अभिनय' का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है ! पर साधारणतः मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही हैItem type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Books | Ektara Trust | 491.435/VER(H) (Browse shelf(Opens below)) | Available | 1667 |
आज-कल देश में हिंदी का जितना अधिक मां है और उसके प्रति जन-साधारण का जितना अधिक अनुराग है, उसे देखते हुए हम कह सकते हैं कि हमारी भाषा सचमुच राष्ट्र-भाषा के पद पर आसीन होती जा रही है । लोग गला फाड़कर चिल्लाते हैं कि राज-काज में, रेडियो में, देशी रियासतों में सब जगह हिंदी का प्रचार करना चाहिए, पर वे कभी आँख उठाकर यह नहीं देखते कि हम स्वयं कैसी हिंदी लिखते हैं । मैं ऐसे लोगों को बतलाना चाहता हूँ कि, हमारी भाषा में उच्छ्रिन्खलता के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए । किसी को हमारी भाषा का कलेवर विकृत करने का अधिकार नहीं होना चाहिए । देह के अनेक ऐसे प्रान्तों मेन हिंदी का जोरों से प्रचार हो रहा है, जहाँ की मात्र-भाषा हिंदी नहीं है । अतः हिंदी का स्वरुप निश्चित और स्थिर करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व उत्तर भारत के हिंदी लेखकों पर ही है । उन्हें यह सोचना चाहिए कि हमारी लिखी हुई भद्दी, अशुद्ध और बे-मुहावरे भाषा का अन्य प्रान्तवालों पर क्या प्रभाव पड़ेगा, और भाषा के क्षेत्र में हमारा यह पतन उन लोगों को कहाँ ले जाकर पटकेगा । इसी बात का ध्यान रखते हुए पूज्य अम्बिका प्रसाद जी वाजपेयी ने कुछ दिन पहले हिंदी के एक प्रसिद्द लेखक और प्रचारक से कहा था - "आप अन्य प्रान्तों के निवासियों को हिंदी पढ़ा रहे हैं और उन्हें अपना व्याकरण भी दे रहे हैं । पर जल्दी ही वह समय आएगा, जब कि वही लोग आपके ही व्यकारण से आपकी भूले दिखायेगे ।" यह मनो भाषा की अशुद्धियो वाले व्यापक तत्व की और गूढ़ संकेत था । जब हमारी समझ में यह तत्व अच्छी तरह आ जायेगा, तब हम भाषा लिखने में बहुत सचेत होने लगेंगे । और मैं समझता हूँ कि हमारी भाषा की वास्तविक उन्नति का आरम्भ भी उसी दिन से होगा । भाषा वह साधन है, जिससे हम अपने मन के भाव दूसरों पर प्रकट करते है ! वस्तुतः यह मन के भाव प्रकट करने का ढंग या प्रकार मात्र है ! अपने परम प्रचलित और सीमित अर्थ में भाषा के अंतर्गत वे सार्थक शब्द भी आते हैं, जो हम बोलते हैं और उन शब्दों के वे क्रम भी आते हैं, जो हम लगाते हैं ! हमारे मन में समय-समय पर विचार, भाव,इच्छाएं, अनुभूतियाँ आदि उत्पन्न होती हैं, वही हम अपनी भाषा के द्वारा, चाहे बोलकर, चाहे लिखकर, चाहे किसी संकेत से दूसरो पर प्रकट करते हैं, कभी-कभी हम अपने मुख की कुछ विशेष प्रकार की आकृति बनाकर या भावभंगी आदि से भी अपने विचार और भाव एक सीमा तक प्रकट करते हैं पर भाव प्रकट करने के ये सब प्रकार हमारे विचार प्रकट करने में उतने अधिक सहायक नहीं होते जितने बोली जानेवाली भाषा होती है ! यह ठीक है कि कुछ चरम अवस्थाओं में मन का कोई विशेष भाव किसी अवसर पर मूक रहकर या फिर कुछ विशिष्ट मुद्राओं से प्रकट किया जाता है और इसीलिए 'मूक अभिनय' भी 'अभिनय' का एक उत्कृष्ट प्रकार माना जाता है ! पर साधारणतः मन के भाव प्रकट करने का सबसे अच्छा, सुगम और सब लोगों के लिए सुलभ उपाय भाषा ही है
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