Kuru-Kuru Swaha

By: Joshi, Manohar ShyamMaterial type: TextTextPublication details: New Delhi Rajkamal Prakashan 2004Description: 208pISBN: 81-267-0895-6Subject(s): Fiction | Hindi LiteratureDDC classification: 891.433 Summary: नाम बेढब, शैली बेडौल, कथानक बेपेंदे का। कुल मिलाकर बेजोड़ बकवास। अब यह पाठक पर है कि ‘बकवास’ को ‘एब्सर्ड’ का पर्याय माने या न माने। पहले शॉट से लेकर फाइनल फ्रीज तक यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसी के एक पात्र के शब्दों में: ‘‘एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।’’ उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंजिला है। पहली मंजिल में बसा है मनोहर - श्रद्धालु-भावुक किशोर। दूसरी मंजिल में ‘जोशीजी’ नामक इण्टेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु ‘मैं’ जो इस कथा को सुना रहा है। नायिका है पहुँचेली - एक अनाम और अबूझ पहेली, जो इस तिमंजिला नायक को धराशायी करने के लिए ही अवतरित हुई है। नायक-नायिका के चारों ओर है बम्बई का बुद्धिजीवी और अपराधजीवी जगत। कुरु-कुरु स्वाहा... में कई-कई कथानक होते हुए भी कोई कथानक नहीं है, भाषा और शिल्प के कई-कई तेवर होते हुए भी कोई तेवर नहीं है, आधुनिकता और परम्परा की तमाम अनुगूँजें होते हुए भी कहीं कोई वादी-संवादी स्वर नहीं है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जो स्वयं को नकारता ही चला जाता है। यह मजाक है, या तमाम मजाकों का मजाक, इसका निर्णय हर पाठक, अपनी श्रद्धा और अपनी मनःस्थिति के अनुसार करेगा। बहुत ही सरल ढंग से जटिल और बहुत ही जटिल ढंग से सरल यह कथाकृति सुधी पाठकों के लिए विनोद, विस्मय और विवाद की पर्याप्त सामग्री जुटाएगी।
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नाम बेढब, शैली बेडौल, कथानक बेपेंदे का। कुल मिलाकर बेजोड़ बकवास। अब यह पाठक पर है कि ‘बकवास’ को ‘एब्सर्ड’ का पर्याय माने या न माने। पहले शॉट से लेकर फाइनल फ्रीज तक यह एक कॉमेडी है, लेकिन इसी के एक पात्र के शब्दों में: ‘‘एइसा कॉमेडी कि दर्शिक लोग जानेगा, केतना हास्यास्पद है त्रास अउर केतना त्रासद है हास्य।’’ उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंजिला है। पहली मंजिल में बसा है मनोहर - श्रद्धालु-भावुक किशोर। दूसरी मंजिल में ‘जोशीजी’ नामक इण्टेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु ‘मैं’ जो इस कथा को सुना रहा है। नायिका है पहुँचेली - एक अनाम और अबूझ पहेली, जो इस तिमंजिला नायक को धराशायी करने के लिए ही अवतरित हुई है। नायक-नायिका के चारों ओर है बम्बई का बुद्धिजीवी और अपराधजीवी जगत। कुरु-कुरु स्वाहा... में कई-कई कथानक होते हुए भी कोई कथानक नहीं है, भाषा और शिल्प के कई-कई तेवर होते हुए भी कोई तेवर नहीं है, आधुनिकता और परम्परा की तमाम अनुगूँजें होते हुए भी कहीं कोई वादी-संवादी स्वर नहीं है। यह एक ऐसा उपन्यास है, जो स्वयं को नकारता ही चला जाता है। यह मजाक है, या तमाम मजाकों का मजाक, इसका निर्णय हर पाठक, अपनी श्रद्धा और अपनी मनःस्थिति के अनुसार करेगा। बहुत ही सरल ढंग से जटिल और बहुत ही जटिल ढंग से सरल यह कथाकृति सुधी पाठकों के लिए विनोद, विस्मय और विवाद की पर्याप्त सामग्री जुटाएगी।

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