Bahadurshah ka Mukadma
Material type: TextPublication details: Swaran Jayanti 2011ISBN: 978-9350003305Subject(s): 1857 Indian Mutiny | Bahadur Shah Zafar | Freedom stuggle -India | Hindi Literature | History | Indian HistoryDDC classification: 954.03 Summary: सत्तावनी संग्राम की असफलता के बाद दिल्ली के उसी लाल किले में, जिसके सामने से होकर हम आप अक्सर गुज़रते हैं, ब्रिटिश हुकमत ने अदालत का एक ढोंग रचा था और बहादुर शाह जफ़र को उस अदालत के सामने एक मजरिम के बतौर पेश होना पड़ा था। इक्कीस दिनों तक चली उस अदालती कार्रवाई के अंत में, बहादुरशाह के बार-बार यह कहने के बावजूद कि मैं तो बस नाम-भर का बादशाह था, "जिसके पास न खज़ाना, न फौज़, न तोपखाना। मैंने अपनी इच्छा से कोई हुक्म नहीं दिया," जाँच कमीशन के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट कर्नल एम. डॉस और डिप्टी जज एण्डवोकेट जनरल मेजर एफ. जे. हेरियट ने इस मसौदे पर दस्तख़त किए कि "अदालत उन गवाहियों पर एक मत है कि बादशाह उन अभियोगों के अपराधी हैं, जो कि कहे गए हैं।" भारत के ब्रिटिशकालीन दौर और 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का विधिवत् अध्ययन करने के लिए बहादुरशाह का मुक़दमा एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उसे अरसा पहले, 1857 की दिल्ली के वाहिद इतिहासकार मरहम ख्वाज़ा हसन निज़ामी ने संपादित करके उर्दू में प्रकाशित कराया था, जिसका यह हिंदी अनुवाद अब आपके हाथों में है।Item type | Current library | Call number | Status | Date due | Barcode | Item holds |
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Books | Ektara Trust | 954.03/NIZ(H) (Browse shelf(Opens below)) | Available | 1175 |
सत्तावनी संग्राम की असफलता के बाद दिल्ली के उसी लाल किले में, जिसके सामने से होकर हम आप अक्सर गुज़रते हैं, ब्रिटिश हुकमत ने अदालत का एक ढोंग रचा था और बहादुर शाह जफ़र को उस अदालत के सामने एक मजरिम के बतौर पेश होना पड़ा था। इक्कीस दिनों तक चली उस अदालती कार्रवाई के अंत में, बहादुरशाह के बार-बार यह कहने के बावजूद कि मैं तो बस नाम-भर का बादशाह था, "जिसके पास न खज़ाना, न फौज़, न तोपखाना। मैंने अपनी इच्छा से कोई हुक्म नहीं दिया," जाँच कमीशन के अध्यक्ष लेफ्टिनेंट कर्नल एम. डॉस और डिप्टी जज एण्डवोकेट जनरल मेजर एफ. जे. हेरियट ने इस मसौदे पर दस्तख़त किए कि "अदालत उन गवाहियों पर एक मत है कि बादशाह उन अभियोगों के अपराधी हैं, जो कि कहे गए हैं।" भारत के ब्रिटिशकालीन दौर और 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य समर का विधिवत् अध्ययन करने के लिए बहादुरशाह का मुक़दमा एक अमूल्य ऐतिहासिक दस्तावेज़ है। उसे अरसा पहले, 1857 की दिल्ली के वाहिद इतिहासकार मरहम ख्वाज़ा हसन निज़ामी ने संपादित करके उर्दू में प्रकाशित कराया था, जिसका यह हिंदी अनुवाद अब आपके हाथों में है।
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